Sacha sukh

एक व्यक्ति के पास दोमंजिला मकान है।
उसके
घर के दायीं ओर एक पांच मंजिला मकान है
और
बायीं तरफ एक झोपड़ी। जब वह दायीं ओर
देखता है तो अपने भाग्य को कोसते हुए
दुखी होता है और जब बायीं ओर देखता है
तो खुश होता है।
देखा जाए तो उस व्यक्ति की खुशी या दुख
केवल मस्तिष्क जनित है। हम में से बहुत से
लोग मन ही मन हर इंदिय सुख
को सुखी जीवन
से जोड़ते हैं। कुछ विचारकों का मानना है
कि सुख
केवल इंद्रिय विषयक नहीं है यानी उपभोग
की वस्तुओं में नहीं है।
इसी तरह असुख या दुख भी हमारे मन
की कल्पना मात्र है। लेखक जेम्स ऐलन इस
बारे
में एक स्थान पर लिखते हैं, 'ज्यादातर लोग
यह
मानते हैं कि वे तब और आनंद से रह पाते
या खुद को सौभाग्यशाली मानते, अगर उनके
पा फलां-फलां वस्तुएं होतीं।
थोड़ी सी संपत्ति और होती या थोड़े से
अवसर
और मिलते तो ज्यादा सुखी होते। जबकि सच
यह है कि जब हमारी आकांक्षाएं और ऐसे
दिखाव
बढ़ते हैं तो असंतोष ज्यादा बढ़ता है।
यदि सुख
और आनंद अपने अंदर नहीं मिल सकता तो यह
कहीं और कभी नहीं मिल सकता।'
लेखक के अनुसार बुद्धिमान व्यक्ति वही है
जो हर स्थिति में दृढ़ रहता है और
मौजूदा स्थितियों में ही आनंद ढूंढता है।
जितना ग्रहण करने की इच्छा होती है,
उतना ही दुख होता है। प्राप्त न
हो तो दुख
होता है। बहुत अधिक प्राप्त न हो तब
इसका दुख होता है। कोई वस्तु प्राप्त
होकर
नष्ट हो जाए तब दुख होता है। जो दूसरों के
पास
है, हमारे पास नहीं है, यह सोचकर दुख
होता है।
जो मेरे पास है, वह दूसरों के पास
भी हो तो तब
भी दुख होता है। असल में, संतोष के अभाव के
कारण हमारा जीवन दुखमय है।
'संतोषमूलं हि सुखम् (मनु. 4.12) अर्थात सुख
का कारण संतोष है। उपलब्ध ज्ञान, बल,
सार्मथ्य व साधनों के अनुरूप कर्म करने पर
जो भी फल मिलता है उसी में तृप्त हो जाने
और
प्रसन्नतापूर्वक रहने को संतोष कहते हैं।
यदि हम
अपनी जीवन शैली और अपने मन पर नियंत्रण
कर लें तो निश्चित रूप से सुखी हो सकते हैं।
जरा से दुख में हताश होने से जीवन सार्थक
नहीं बन सकता।
यदि हम विचार करें
कि जितनी योग्यता हम में
है, उसी के आधार पर प्रतिफल मिला है
तो यह
सोचने मात्र से हमारा जीवन सुखमय
हो जाएगा।
अपने ज्ञान, बल, सार्मथ्य व उपलब्ध
साधनों से जो मैंने कर्म किया उससे अधिक
की इच्छा मैं कैसे कर सकता हूं। यदि इससे
अधिक पाने की इच्छा हो, तो हमें
अपनी योग्यता,
ज्ञान, बल, सार्मथ्य को बढ़ाना चाहिए।
अगर
हमारी दृष्टि प्रतिफल पर जाती है
तो योग्यता पर भी जानी चाहिए।
हमारे जीवन में असंतोष का एक कारण लोभ
भी है। यदि मन में किसी चीज का लोभ है
तो निश्चित ही जीवन में
कभी तृप्ति नहीं मिल
सकती। विद्वानों का मत है कि अपने
असंतोष पर
विचार करते समय हमें उन अभावग्रस्त
लोगों की ओर भी देखना चाहिए जिन्हें एक
समय
का भोजन भी नसीब नहीं है। उनके पास न
पहनने
को है, न रहने को। यदि हम केवल सफल और
समृद्ध लोगों को देखेंगे तो हम
हमेशा दुखी रहेंगे।
विडंबना यह है कि जिनके पास सब कुछ
होता है,
वे भी अपनी स्थिति से असंतुष्ट रहते हैं।
ज्ञानीजन यह भी कहते हैं कि अनेक
विषयों और
सुखों से उत्पन्न आनंद कभी भी वास्तविक सुख
या आनंद नहीं होता। आनंद का अर्थ है मन
का शांत रहना और चित्त में
किसी भी तरह की चिंता का नहीं होना।
जब हम
इंदिय सुख के कारण आनंदित होते हैं तो ऐसे
आनंद की वजह केवल इंद्रियों को मिलने
वाला सुख ही होता है। इस तरह
की संतुष्टि या सुख केवल नाम का सुख
होता है।
सचाई यह है कि सच्चा संतोष
मनोरथों को पूरे
करने में नहीं है।
महर्षि दयानंद सरस्वती संतोष सुख
को मुक्ति जैसा सुख मानते हैं। अर्थात
मुक्ति में
जैसा सुख मिलता है, वैसा ही सुख संतोष
का है।

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